Saturday, November 12, 2011

कर्म और मनुष्य

गोस्वामी तुलसीदास जी कर्म की प्रधानता की मानते हुए कहते हैं , यह संसार कर्मो का रंगमंच है |
आकर चारि लच्छ चौरासी | जोनी ब्रह्मत यह जिव अबिनासी ||
फिरत सदा माया कर प्रेरा | काल कर्म सुभाव गुन घेरा | (मानस .४३.-)
अर्थात आत्मा अच्छे - बुरे कर्मों के अनुसार बुद्धि और स्वभाव पाकर माया के चौरासी लाख योनियों के जाल में फँसी हुई है |
नर सम नहीं कवनिउ देही | जिव चराचर जाचत तेही ||
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी | ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ||
गुरु अर्जुन देव इसको 'करमा संदडा खेतु" कह कर बयान करते हैं | गुरु नानक भी यही बोलते हैं :
ददै दोसु देऊ किसै दोसु करमा आपनिआ ||
जो मैं कीआ सो मै पाया दोसु दीजै अवर जना || (आदि-ग्रन्थ , प्र.४३३)
मेरे जीवन में आने वाली हर परिस्थिति के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ और किसी को दोष देना मूर्खता है | जैसा मैंने कर्म किया उसी के अनुसार इस मौजूदा ज़िन्दगी की रुपरेखा बनी |

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