Thursday, April 1, 2010

साँस भरने को तो जीना नहीं कहते / मीना कुमारी की ग़ज़ल

पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है

रात ख़ैरात की, सदक़े की सहर होती है

साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब

दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है

जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख़्वाब

रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है

ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढता है

एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है

एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू

कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है

दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ

बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है

काम आते हैं न आ सकते हैं बे-जाँ अल्फ़ाज़

तर्जमा दर्द की ख़ामोश नज़र होती है.

* मीना कुमारी

निधन 31 मार्च 1972

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